Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि

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सुखदा मुस्काई-आप तो हम लोगों पर ही हाथ साफ करना चाहते हैं ।
'जो राह बताए उसे आगे चलना पड़ेगा।'
'मैं तैयार हूं लेकिन म्युनिसिपैलिटी के पास कुछ प्लाट तो खाली होंगे?'
'हां, हैं क्यों नहीं- मैंने उन सबों का पता लगा लिया है मगर हाफिजजी फरमाते हैं, उन प्लाटों की बातचीत तय हो चुकी है।'
सलीम ने मोटर से उतरकर शान्तिकुमार को पुकारा। उन्होंने उसे अंदर बुला लिया और पूछा-किधर से आ रहे हो-
सलीम ने प्रसन्न मुख से कहा-कल रात को चला जाऊंगा। सोचा, आपसे रूखसत होता चलूं। इसी बहाने देवीजी से भी नियाज हासिल हो गया।
शान्तिकुमार ने पूछा-अरे तो यों ही चले जाओगे, भाई- कोई जलसा, दावत, कुछ नहीं- वाह
'जलसा तो कल शाम को है। कार्ड तो आपके यहां भेज दिया था। मगर आपसे तो जलसे की मुलाकात काफी नहीं।'
'तो चलते-चलते हमारी थोड़ी-सी मदद करो दक्षिण तरफ म्युनिसिपैलिटी के जो प्लाट हैं, वह हमें दिला दो मुर्ति में?'
सलीम का मुख गंभीर हो गया। बोला-उन प्लाटों की तो शायद बातचीत हो चुकी है। कई मेंम्बर खुद बेटों और बीवियों के नाम खरीदने को मुंह खोले बैठे हैं।
सुखदा विस्मित हो गई-अच्छा भीतर-ही-भीतर यह कपट-लीला भी होती है। तब तो आपकी मदद की और जरूरत है। इस मायाजाल को तोड़ना आपका कर्तव्यल है।
सलीम ने आंखें चुराकर कहा-अब्बाजान इस मुआमले में मेरी एक न सुनेंगे। और हक यह है कि जो मुआमला तय हो चुका, उसके बारे में कुछ जोर देना भी तो मुनासिब नहीं।
यह कहते हुए उसने सुखदा और शान्तिकुमार से हाथ मिलाया और दोनों से कल शाम के जलसे में आने का आग्रह करके चला गया। वहां बैठने में अब उसकी खैरियत न थी।
शान्तिकुमार ने कहा-देखा आपने अभी जगह पर गए नहीं पर मिजाज में अफसरी की बू आ गई। कुछ अजब तिलिस्म है कि जो उसमें कदम रखता है, उस पर जैसे नशा हो जाता है। इस तजवीज के यह पक्के समर्थक थे पर आज कैसा निकल गए- हाफिजजी से अगर जोर देकर कहें, तो मुमकिन नहीं कि वह राजी हो जाएं।
सुखदा ने मुख पर आत्मगौरव की झलक आ गई-हमें न्याय की लड़ाई लड़नी है। न्याय हमारी मदद करेगा। हम और किसी की मदद के मुहताज नहीं।
इसी समय लाला समरकान्त आ गए। शान्ति कुमार को बैठे देखकर जरा झिझके। फिर पूछा-कहिए डॉक्टर साहब, हाफिजजी से क्या बातचीत हुई-
शान्तिकुमार ने अब तक जो कुछ किया था, वह सब कह सुनाया।

समरकान्त ने असंतोष का भाव प्रकट करते हुए कहा-आप लोग विलायत के पढ़े हुए साहब, मैं भला आपके सामने क्या मुंह खोल सकता हूं, लेकिन आप जो चाहें कि न्याय और सत्य के नाम पर आपको जमीन मिल जाए, तो चुपके हो रहिए। इस काम के लिए दस-बीस हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे-हरेक मेंबर से अलग-अलग मिलिए। देखिए। किस मिजाज का, किस विचार का, किस रंग-ढंग का आदमी है। उसी तरह उसे काबू में लाइए-खुशामद से राजी हो तो खुशामद से, चांदी से राजी हो चांदी से, दुआ-तावीज, जंतर-मंतर जिस तरह काम निकले, उस तरह निकालिए। हाफिजजी से मेरी पुरानी मुलाकात है। पच्चीस हजार की थैली उनके मामा के हाथ घर में भेज दो, फिर देखें कैसे जमीन नहीं मिलती- सरदार कल्याणसिंह को नये मकानों का ठेका देने का वादा कर लो, वह काबू में आ जाएंगे। दुबेजी को पांच तोले चन्द्रोदय भेंट करके पटा सकते हो। खन्ना से योगाभ्यास की बातें करो और किसी संत से मिला दो ऐसा संत हो, जो उन्हें दो-चार आसन सिखा दे। राय साहब धनीराम के नाम पर अपने नए मुहल्ले का नाम रख दो, उनसे कुछ रुपये भी मिल जाएंगे। यह हैं काम करने का ढंग। रुपये की तरफ से निश्चिं त रहो। बनियों को चाहे बदनाम कर लो पर परमार्थ के काम में बनिये ही आगे आते हैं। दस लाख तक का बीमा तो मैं लेता हूं। कई भाइयों के तो वोट ले आया। मुझे तो रात को नींद नहीं आती। यही सोचा करता हूं कि कैसे यह काम सि' हो। जब तक काम सि' न हो जाएगा, मुझे ज्वर-सा चढ़ा रहेगा।

शान्तिकुमार ने दबी आवाज से कहा-यह फन तो मुझे अभी सीखना पड़ेगा, सेठजी। मुझे न रकम खाने का तजरबा है, न खिलाने का। मुझे तो किसी भले आदमी से यह प्रस्ताव करते शर्म आती है। यह खयाल भी आता है कि वह मुझे कितना खुदगरज समझ रहा होगा। डरता हूं, कहीं घुड़क न बैठे।
समरकान्त ने जैसे कुत्तो को दुत्कार कर कहा-तो फिर तुम्हें जमीन मिल चुकी। सेवाश्रम के लड़के पढ़ाना दूसरी बात है, मामले पटाना दूसरी बात है। मैं खुद पटाऊंगा।
सुखदा ने जैसे आहत होकर कहा-नहीं, हमें रिश्वत देना मंजूर नहीं। हम न्याय के लिए खड़े हैं, हमारे पास न्याय का बल है। हम उसी बल से विजय पाएंगे।
समरकान्त ने निराश होकर कहा-तो तुम्हारी स्कीम चल चुकी।
सुखदा ने कहा-स्कीम तो चलेगी हां, शायद देर में चले, या धीमी चाल से चले, पर रूक नहीं सकती। अन्याय के दिन पूरे हो गए।
'अच्छी बात है। मैं भी देखूंगा।'
समरकान्त झल्लाए हुए बाहर चले गए। उनकी सर्वज्ञता को जो स्वीकार न करे, उससे वह दूर भागते थे।
शान्तिकुमार ने खुश होकर कहा-सेठजी भी विचित्र जीव हैं इनकी निगाह में जो कुछ है, वह रुपया। मानवता भी कोई वस्तु है, इसे शायद यह मानें ही नहीं।
सुखदा की आंखें सगर्व हो गईं-इनकी बातों पर न जाइए, डॉक्टर साहब- इनके हृदय में जितनी दया, जितनी सेवा है, वह हम दोनों में मिलाकर भी न होगी। इनके स्वभाव में कितना अंतर हो गया है, इसे आप नहीं देखते- डेढ़ साल पहले बेटे ने इनसे यह प्रस्ताव किया होता, तो आग हो जाते। अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाना साधारण बात नहीं है। और विशेषकर उस आदमी के लिए, जिसने एक-एक कौड़ी को दांतों से पकड़ा हो। पुत्र-स्नेह ही ने यह काया-पलट किया है। मैं इसी को सच्चा वैराग्य कहती हूं। आप पहले मेंबरों से मिलिए और जरूरत समझिए तो मुझे भी ले लीजिए। मुझे तो आशा है, हमें बहुमत मिलेगा। नहीं, आप अकेले न जाएं। कल सवेरे आइए तो हम दोनों चलें। दस बजे रात तक लौट आएंगे, इस वक्त मुझे जरा सकीना से मिलना है। सुना है महीनों से बीमार है। मुझे तो उस पर श्रध्दा-सी हो गई है। समय मिला, तो उधर से ही नैना से मिलती आऊंगी।
डॉक्टर साहब ने कुर्सी से उठते हुए कहा-उसे गए तो दो महीने हो गए, आएगी कब तक-
'यहां से तो कई बार बुलाया गया, सेठ धनीराम बिदा ही नहीं करते।'
'नैना खुश तो है?'
'मैं तो कई बार मिली पर अपने विषय में उसने कुछ न कहा। पूछा, तो यही बोली-मैं बहुत अच्छी तरह हूं। पर मुझे तो वह प्रसन्न नहीं दिखी। वह शिकायत करने वाली लड़की नहीं है। अगर वह लोग लातों से मारकर निकालना भी चाहें, तो घर से न निकलेगी, और न किसी से कुछ कहेगी।'
शान्तिकुमार की आंखें सजल हो गईं-उससे कोई अप्रसन्न हो सकता है, मैं तो इसकी कल्पना ही नहीं कर सकता।
सुखदा मुस्कराकर बोली-उसका भाई कुमार्गी है, क्या यह उन लोगों की अप्रसन्नता के लिए काफी नहीं है-
'मैंने तो सुना, मनीराम पक्का शोहदा है।'
'नैना के सामने आपने वह शब्द कहा होता, तो आपसे लड़ बैठती।'
'मैं एक बार मनीराम से मिलूंगा जरूर।'
'नहीं आपके हाथ जोड़ती हूं। आपने उनसे कुछ कहा, तो नैना के सिर जाएगी।'
'मैं उससे लड़ने नहीं जाऊंगा। मैं उसकी खुशामद करने जाऊंगा। यह कला जानता नहीं पर नैना के लिए अपनी आत्मा की हत्या करने में भी मुझे संकोच नहीं है। मैं उसे दु:खी नहीं देख सकता। नि:स्वार्थ सेवा की देवी अगर मेरे सामने दु:ख सहे, तो मेरे जीने को धिक्कार है।
शान्तिकुमार जल्दी से बाहर निकल आए। आंसुओं का वेग अब रोके न रूकता था।

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